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Wednesday, March 22, 2017

नव नूतन की रह पकड़ना

poem by Umesh chandra srivastava 

नव नूतन की रह पकड़ना ,इतना आसान नहीं होता। 
जब दो हित भावों से जुड़ता ,उसका हल आसान कहाँ। 
राम हुए थे त्रेता युग में ,पर मुगलों का राज्य रहा। 
क्यों कहते हो स्वर्ण युग था ,अकबर काल महान रहा। 
दो संस्कृत की अमर बेल को ,राजनीती का जामा क्यों ?
पत्थर भी तराश रहे हैं ,जकड़न में क्यों उनके हैं ?
बात समझ से-सीधी इतनी ,आस्था का जो सेतु रहा। 
वह भी कायम रहे सदा ही ,यह भी बात सुलझ जाए। 
नीयत की बस लगी कसौटी , राम-रहीम तो अपने हैं। 
इनको बाँट-खाट क्यों बिछते ,नीयत को बस साफ़ करो। 
बुद्धिवाद की प्रबल चेतना , श्रद्धा में तब्दील करो। 
मत रगड़ो ,झगड़ों को तुम अब ,केवल नीयत साफ़ करो। 
दोनों गुट का ध्रुवीकरण न हो ,अब तो समस्या , साफ़ करो। 
संवादों से हल सब होगा ,बस नीयत को साफ करो। 
वरना उलझो इस झगड़े में ,आस्था ,धर्म बदनाम करो। 
राजनीति के कुशल चितेरक ,इसमें क्या कर सकते हैं ?
वह तो रोटी सेक ,ध्रुवीकण अपना रंग जमाएंगे। 
वह फरमाएंगे ऐसा हो ,जैसा इतिहासों में है। 
ऐसे मसलों पर चिंतन कर ,स्वविवेक इन्साफ करो। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

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