poem by Umesh chandra srivastava
कि पूरे जहाँ का सुकूँ मिल गया है।
तुम्हारा वह चेहरा बड़ा ही सुकोमल ,
नज़र का वह बांकापन है मनोहर।
तुम चलती तो लगता गगन हिल गया है ,
मचलती तो सारा भुवन हिल गया है।
वो सागर की बातें ,वो लहरों का रुकना ,
तुम्हें देखकर वो हवाओं का झुकना।
बड़ी ही मुक़द्दस जगह जहँ तुम मिलती ,
वो फूलों का खिलना, वो डाली का झुकना।
बड़ी ही जतन से तुम्हें है तराशा ,
वो भगवान ही है, जो सबका है दाता।
चलो फिर से फुरसत ,तुम्हें क्या बुलाएँ ?
तुम नाज़ुक कली हो तुम्हें क्या झुकाएं ?
ज़रा मोड़ पर ही तो टूटोगी ऐसे ,
कि जैसे गगन से सितारे गिरे हों।
महक हो जरा तुम धरा को महकाओ ,
कुछ अपनी मधुर तुम मधुरिमा खिलाओ।
सभी झूम जाएँ-वो गाएँ 'औ' नाचें ,
तुम्हें देख कर ही ख़ुशी गीत गाएँ।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava
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