month vise

Saturday, March 4, 2017

तुम्हें देखता हूँ तो लगता है ऐसे

poem by Umesh chandra srivastava 

तुम्हें देखता हूँ तो लगता है ऐसे ,
कि पूरे जहाँ का सुकूँ मिल गया है। 
तुम्हारा वह चेहरा बड़ा ही सुकोमल ,
नज़र का वह बांकापन है मनोहर। 
तुम चलती तो लगता गगन हिल गया है ,
मचलती तो सारा भुवन हिल गया है। 
वो सागर की बातें ,वो लहरों का रुकना ,
तुम्हें देखकर वो हवाओं का झुकना। 
बड़ी ही मुक़द्दस जगह जहँ तुम मिलती ,
वो फूलों का खिलना, वो डाली का झुकना। 
बड़ी ही जतन से तुम्हें है तराशा ,
वो भगवान ही है, जो सबका है दाता। 
चलो फिर से फुरसत ,तुम्हें क्या बुलाएँ ?
तुम नाज़ुक कली हो तुम्हें क्या झुकाएं ?
ज़रा मोड़ पर ही तो टूटोगी ऐसे ,
कि जैसे गगन से सितारे गिरे हों। 
महक हो जरा तुम धरा को महकाओ ,
कुछ अपनी मधुर तुम मधुरिमा खिलाओ। 
सभी झूम जाएँ-वो गाएँ 'औ' नाचें  ,
तुम्हें देख कर ही ख़ुशी गीत गाएँ। 

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

No comments:

Post a Comment

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...