poem by Umesh chandra srivastava
नर-तन की सुन्दर अनुभूति।
इस अनुभूति से उपजे सब ,
चाहे देवों का चरणामृत।
नर में ही विचारों का गुच्छा ,
अभिव्यक्ति की-अविरल क्षमता।
जो चाहे सोचे नर-तन यह ,
अभिव्यक्ति में संयम करके,
वह व्यक्त करे जो जन हित हो ,
उसमें ही अमरता मिलती है ,
कहने को शरीर ही मरता है।
पर कर्म सदैव अमर है यहाँ ,
इसके खातिर नर जीता है।
बस लोभ-मोह को गर त्यागे ,
इसके चलते नर-विरक्ति को ,
पाल पास व्यापक करता।
गर इससे छुटकारा हो तो ,
नर देव समान स्वयं होता।
देवों का यही विधान यहाँ ,
वह कर्म भोग में लिप्त कहाँ ?
जो भी इसमें गर पड़ जाता ,
तो दण्ड का भागी वह होता।
जीवन तो बहता स्रोता है ,
बस शुद्ध जलों का मंचन कर।
खुद सब मिलजायेगा नर-तन ,
यह लोक-परलोक की महिमा है।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava
No comments:
Post a Comment