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Wednesday, March 29, 2017

मैं अयोध्या हूँ - 3

poem by Umesh chandra srivastava
मैं अयोध्या हूँ।
तुलसी बाबा ने मंडित किया मुझे।
                     
                         (3)

मेरे अस्तित्व को स्वीकारा ,
पर न जाने क्यों ?
इधर मुझे मथ रहा ,
मेरा ही अस्तित्व !
न जाने कितने लोगों ने ,
किये प्राण न्योछावर।
 न जाने किन वजहों से ,
राम को लेकर ,
उनके जन्मभूमि में ,
उनको प्रतिष्ठित करने को ,
उनका मंदिर बनवाने के लिए ,
उनको संसार में प्रतिष्ठा ,
दिलाने के लिए !
अब देखना है !
भविष्य की  कोख में ,
मेरा और-
मेरे इस अयोध्या का ,
क्या होता है ?
मंदिर तो बनना है।
मस्जिद भी बनेगा।
विमर्श से ,फैसले से ,
यह भविष्य ही तय करेगा।
पर ,मैं पीड़ित हूँ ,
उस माँ की तरह ,
जो प्रसव बेला ,
करीब आ जाने पर ,
छटपटाती है ,
उत्साहित रहती है ,
अपनी कोख में पल रहे ,
बच्चे को लेकर।
कि आखिर कब वह ,
देख पायेगा-इस लोक को ,
कब वह समझ पायेगा ,
इस  लोक के लोगों को !
बस यही छटपटाहट है ,
 देखिये क्या होता है ?
मैं तो अयोध्या हूँ।
हूँ और रहूँगा।
बस इसी सोच में हूँ ,
कि सब शांतिमय हो।
बस शांति से हो।
क्योंकि ,राम ने -
रावण का वध किया ,
शांति स्थापित करने के लिए।
मानवता का विस्तार करने के लिए।
आज भी लोग यही करें ,
तो मुझ अयोध्या को ,
लगेगा अच्छा।
भायेगा लोक की महत्ता ,
और फिर से ,
मैं संजोया जाऊँगा।
क्योंकि मैं तो अयोध्या हूँ।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

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