poem by Umesh chandra srivastava
मन पंछी उड़-उड़ जाता है ,
कैसे उसे सम्हालूँ मैं।
भोर पहर के उच्चाटन को,
कैसे कहाँ निहारूँ मैं।
सूदिन बेल के यह प्रभात था ,
मन को बहुत लुभाता था।
रात की बातें कैसे बताऊं ,
भोर पहर मुस्काता था।
अनबोलों के मुख भी खुलते ,
कहते कैसे रहते हो।
क्या बतलाऊँ मन सावन में ,
क्या कुछ बात बताऊँ मैं ?
मन पंछी उड़-उड़ जाता है ,
कैसे उसे सम्हालूँ मैं।
भोर पहर के उच्चाटन को,
कैसे कहाँ निहारूँ मैं।
सूदिन बेल के यह प्रभात था ,
मन को बहुत लुभाता था।
रात की बातें कैसे बताऊं ,
भोर पहर मुस्काता था।
अनबोलों के मुख भी खुलते ,
कहते कैसे रहते हो।
क्या बतलाऊँ मन सावन में ,
क्या कुछ बात बताऊँ मैं ?
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
No comments:
Post a Comment