poem by Umesh chandra srivastava
प्लेट सजाकर सभी दिया है ,
जीव-जंतु का उत्सर्जक वह।
उसने ही यह जगत बनाया ,
माया ,ममता ,स्नेह सिखाया।
भावों का वह कुशल चितेरक ,
सब भावों का वह उत्प्रेरक।
भाव-भंगिमा सब उसकी है ,
हम सब केवल मोहरे उसके।
जैसा चाहे चाल चले वह ,
हम सब उस अनुसार चले यहं।
वह ही लोक धर्म का पालक ,
वह ही लोक धर्म का कारक।
हम सब तो निमित्त मात्र हैं ,
जैसे चाहा उसने नचाया।
कहाँ कर रहे फिर वह बातें ,
हमने जीवन में यह बनाया।
सब कुछ वही-वही करवाता ,
हम सब केवल उसकी माया।
उसकी दाया पर हम रहते ,
भोग,पुण्य और लाभ भी करते।
उसने जीवन चक्र धुरी पर ,
हमको ऐसा नाच नचाया।
फिर भी मोहवशी के चलते ,
हम करते-उसको दुःख देते।
नहीं हमें यह सब करना है ,
जीवन के पथ पर बढ़ाना है।
सत्य , अहिंसा डोर पकड़ कर ,
आगे-आगे नित बढ़ना है।
प्लेट सजाकर सभी दिया है ,
जीव-जंतु का उत्सर्जक वह।
उसने ही यह जगत बनाया ,
माया ,ममता ,स्नेह सिखाया।
भावों का वह कुशल चितेरक ,
सब भावों का वह उत्प्रेरक।
भाव-भंगिमा सब उसकी है ,
हम सब केवल मोहरे उसके।
जैसा चाहे चाल चले वह ,
हम सब उस अनुसार चले यहं।
वह ही लोक धर्म का पालक ,
वह ही लोक धर्म का कारक।
हम सब तो निमित्त मात्र हैं ,
जैसे चाहा उसने नचाया।
कहाँ कर रहे फिर वह बातें ,
हमने जीवन में यह बनाया।
सब कुछ वही-वही करवाता ,
हम सब केवल उसकी माया।
उसकी दाया पर हम रहते ,
भोग,पुण्य और लाभ भी करते।
उसने जीवन चक्र धुरी पर ,
हमको ऐसा नाच नचाया।
फिर भी मोहवशी के चलते ,
हम करते-उसको दुःख देते।
नहीं हमें यह सब करना है ,
जीवन के पथ पर बढ़ाना है।
सत्य , अहिंसा डोर पकड़ कर ,
आगे-आगे नित बढ़ना है।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava
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