poem by Umesh chandra srivastava
प्रीतम तुम बिन घर सूना।
पापड़ ,चिप्स कहाँ बन पाया ,
सब कुछ लगा अधूरा सा।
तुम रहते थे मन लगता था ,
आलू बोरे-बोरे आता।
सुधियों का वह मंजर आलम ,
गया ,नहीं क्या आएगा ?
तुम बिन आंगन ,कोना सूना ,
सब कुछ तीतर-बितर सा है।
कहाँ गए परदेसी निर्मोही ,
तुमने तो जग छोड़ दिया।
कहाँ से लाऊं तुम जैसा मैं ,
जो घर, होली सँवारे।
पौध-पौध में थिरकन तेरी ,
तेरी बगिया सुधारे।
यह तो मोल नहीं मिलता है ,
प्रेम तो शाश्वत पौधा है।
उसका तौल कहाँ इस जग में ,
तुम तो गए ,कहाँ अब हो ?
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava
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