दशहरा का मेला ,लगा है यह मेला।
चला जा रहा है ,यहाँ रेले पे रेला।
कोई पैंट गांठे ,कोई जीन्स चापे।
कोई टोपी , हैट ,कोई सूट लादे।
चले आ रहे हैं, चले जा रहे हैं।
अजब है रवानी ,लगाए लिपस्टिक।
पहन हील वाली ,वह चप्पल पे चप्पल।
खटा-खट , फटा -फट ,चली जा रही है।
थोड़ी दूर जाते ही दिखा है दल तो।
यह हाथी , यह घोड़ा ,यह चौकी सजी है।
विराजे हैं उसमे अग्रज साथ लक्ष्मण।
औ बैठी हुई बीच में जनक नंदिनी।
छवि है छटा है ,मनोहर-मनोहर।
लगी लाइटों की यह कैसी रंगोली।
बिहंसते हैं चेहरे ,मुखोटे भी दिखते।
है ठेलम है ठेला ,दशहरा का मेला।
निकट पास मे है , कुछ महिला की टोली।
जो आपस में करती ,हठीली ठिठोली।
वह कहती बड़ी ही मनोहर है जोड़ी।
सिया राम बैठे , लखन लाल हँसते।
सभी को मटक कर , हैं हनुमान कहते।
बोलो राम की जय ,बोलो जानकी जय।
यही जय-जय कारों में चौकी निकलतीं।
चमकती-चमकती कई चौकिया हैं।
हैं दृश्यों का सागर , भरी लेके गागर।
वह गांव की गोरी चली जा रही है।
बहुत खूबसूरत ही चौकी सजी है।
सभी देख मोहित 'औ' सोहित हुए हैं।
अंगरखा लपेटे , लगा लाल चन्दन।
ये पंडित जी तो हैं चले आ रहे हैं।
किया आरती भी ,चढ़ावा चढ़ाया।
लगे बाँटने वे खुशी की मिठाई।
है बच्चे उन्हें देख करते ढिठाई।
बिदकते हुए वह कहे जा रहे हैं ।
हे ललुआ हे कलुआ ,बहुत हो गया अब।
अब जाओ यहाँ से नहीं मार देंगे।
बहुत ही है मोहक यहाँ दृश्य दिखता।
यह मेला है भाई ,दशहरा का मेला... । (शेष कल )
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -