poem by Umesh chandra srivastava
छंदों में मात्राएँ,गिनती।
अब नवयुग है ,नव युग में तो ,
नवयुग में छंद कुछ हुए मंद।
पर उसका भी अपना मुख है ,
लय में ही बात सभी कुछ है।
वो देखो-वह तोड़ती पत्थर ,
निर्विकार वह कर्म रत ।
उसके कर्मों का तार वहां ,
मेहनत धर्मों का वार वहां।
उसका ईश्वर वह कर्म रहा ,
कर्मों का सेतू जग सारा ,
सब अपना- अपना कर्म करें
सब अपना-अपना धर्म धरें।
गीता में कृष्णा की बातें ,
कर्मों से बंधे हैं , सब सारे।
जैसा भी कर्म रहेगा तो ,
वह फल वैसा ही पायेगा।
यह भोग-जोग ,अविराम श्याम ,
सब कर्मों के हित मिलते हैं।
वह तारा जो स्थिर है वहां ,
कर्मों के चलते वह है तना।
कर्मों की डोरी कविता है ,
जो अविरल सविता सी बहती।
सब बात नज़ारे वह कहती ,
अपने ही धुन में वह रहती।
कविता तो सुकोमल मनभावन ,
मन के अंतस का प्रेम सुलभ।
मानव होना व्यवहार रहा ,
कवि तो बन जाना है दुर्लभ। ...........................शेष कल
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava
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