बेटियां गुल खिलाती यहाँ से वहाँ ,
हम सभी तो उसी की वजह से हुए।
वो है बेटी कहीं ,कहीं पे माँ बनी ,
वह है पत्नी ,बहन ,बुआ ,दादी घनी।
उसका ही धन ,उसी का है सारा जगत ,
वह ही उर्बी बनी -सबको ठौर दिया।
गर धरातल न हो ,तो फिर बोलो कहाँ -
हो कहाँ पे खड़े 'औ' कहाँ- सो ,रहो।
उसकी नेकी पे चलता है सारा जहाँ ,
वह तो तोहमत सहे ,व्यंग्य बाण भिदे।
उसका करतब मनोहर-सहज है सरल ,
देखो-माँ-बेटी -नाम तो मोहक बहुत।
उसने सब कुछ सहा -पर मगर क्या कहा ?
देखो सीता भी तो बेवजह हर गयी।
.....क्रमशः
उमेश चंद्र श्रीवास्तव-
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