poem by Umesh chandra srivastava
प्रेम के देवता ,तेरा दर्शन तो हो,
मैं ह्रदय ज्योति मन में जला के रहूँ।
तुम कहो-रूप का यह जो दर्पण मेरा ,
उसको तुम पर ही केवल लुटा के रहूँ।
आज फिर तो बजी बांसुरी मन मेरे ,
तुम तो कन्हा बनो ,मैं तो राधा रहूँ।
फिर चले दौर वह-जहाँ प्रेम नगर ,
उस भवन में ,तेरी बन के साधक रहूँ।
तुम कहो बात क्या ,वो जो तारा दिखा ,
उसको तोड़ जमीं पे दिखा के रहूँ।
प्रेम के देवता ,तेरा दर्शन तो हो,
मैं ह्रदय ज्योति मन में जला के रहूँ।
तुम कहो-रूप का यह जो दर्पण मेरा ,
उसको तुम पर ही केवल लुटा के रहूँ।
आज फिर तो बजी बांसुरी मन मेरे ,
तुम तो कन्हा बनो ,मैं तो राधा रहूँ।
फिर चले दौर वह-जहाँ प्रेम नगर ,
उस भवन में ,तेरी बन के साधक रहूँ।
तुम कहो बात क्या ,वो जो तारा दिखा ,
उसको तोड़ जमीं पे दिखा के रहूँ।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 01 अप्रैल 2017 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
सुंदर चित्रण। आभार
ReplyDeleteसुन्दर भाव।
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