poem by Umesh chandra srivastava
वह कहाँ पर भाग जाता ,संग से बिछुड़न किये।
सोच रक्खा था कि अब की ,फागुनों में वो मिले।
रंग से रंगूँ मिलाकर ,उसकी सूरत मलामल।
पर उसे तो दौर वह प्रिय , जिसमे सब रंगीन हो।
रंग गुलालों की ज़रुरत ,वहं कहाँ पे हो रही।
वह रँगीली रंग बिना ही ,रंग की संगनी बनी।
वह वहां पर खड़ी देखो-रंग की रंगत लिए।
उसपे रंगों की फुहारें -डालना बेकार है।
वह तो खुद रंगों की मलिका उसका वह आकार है।
बेवजह मैं जोहता था-फागुनों के दिवस-दिन।
उसके रंगों में रंगा मैं ,हर दिवस है फागुनी।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava
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