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Tuesday, February 28, 2017

लोग रहते शहर ,गावँ जाते रहे

poem by Umesh chandra srivastava

गाँव में अब कहाँ ठाँव वैसा रहा ,
लोग बैठे वहां बतकही खूब करें। 
बात सीता की हो या अहिल्या की हो ,
पति के चलते सहा खूब उनने यहां। 
छल गए राजा दशरथ ,दिया प्राण भी ,
'औ' कैकेई सदा दुःख में डूबी रही। 
यह भवन गांव का तो सुहाना लगे -
यहाँ जाओ नहीं ,बस निहारो इसे। 
गावँ में मेड़ है ,पगडंडियां भी हैं ,
अब सड़क का यहां पे है जोरों कला। 
अब मुहाने पे सोए कहाँ लोग हैं ,
घर के अंदर ही अपना बिछौना रमा। 
लोग आते यहाँ , भुनभुनाते यहाँ ,
पुत्र गया है शहर ,लौट क्या आएगा ?
कहते-वाह रे! तरस तू तो खाया नहीं ,
कोख में मैं लिए,दूध का मोल क्या ?
अब तो प्रश्न हुआ ,पैदा क्यों था किया ?
लोक-लाजों का कोई नहीं मोल है ,
हर जगह पे तराजू का ही तौल है। 
रिश्ते-नाते सभी स्वार्थ में पल रहे ,
सब सहें,सब सहें ,कुछ न बोलें कहीं। 
अब फितरतों में ऐसा ही मौसम रहा ,
लोग रहते शहर ,गावँ जाते रहे। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

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