मीत बनाकर प्रीत की डोरी ,
कैसे-कैसे खींची है।
सुदिन दिखने के चक्कर में ,
कैसे-कैसे भींची है।
स्वप्न दिखने में तो माहिर ,
गलियों-गलियों घूम रहे।
बौराये हम पास तुम्हारे ,
सपनों में ही झूम रहे।
कहो वचन देते हो हमको ,
या फिर सपनों में भरमे।
बहुत दिखाया सपन-सलोना ,
मनुहारों 'औ' बातों का।
अब तो रहम करो कुछ थोड़ा ,
बहुत घुमा कर लाये हो।
भला-भला हो सदा तुम्हारा ,
भलमनसाहत अब क्या है ?
तुम तो झूमों अपनी मस्ती ,
मैं अब तो हूँ दूर चली।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
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