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Tuesday, February 28, 2017

लोग रहते शहर ,गावँ जाते रहे

poem by Umesh chandra srivastava

गाँव में अब कहाँ ठाँव वैसा रहा ,
लोग बैठे वहां बतकही खूब करें। 
बात सीता की हो या अहिल्या की हो ,
पति के चलते सहा खूब उनने यहां। 
छल गए राजा दशरथ ,दिया प्राण भी ,
'औ' कैकेई सदा दुःख में डूबी रही। 
यह भवन गांव का तो सुहाना लगे -
यहाँ जाओ नहीं ,बस निहारो इसे। 
गावँ में मेड़ है ,पगडंडियां भी हैं ,
अब सड़क का यहां पे है जोरों कला। 
अब मुहाने पे सोए कहाँ लोग हैं ,
घर के अंदर ही अपना बिछौना रमा। 
लोग आते यहाँ , भुनभुनाते यहाँ ,
पुत्र गया है शहर ,लौट क्या आएगा ?
कहते-वाह रे! तरस तू तो खाया नहीं ,
कोख में मैं लिए,दूध का मोल क्या ?
अब तो प्रश्न हुआ ,पैदा क्यों था किया ?
लोक-लाजों का कोई नहीं मोल है ,
हर जगह पे तराजू का ही तौल है। 
रिश्ते-नाते सभी स्वार्थ में पल रहे ,
सब सहें,सब सहें ,कुछ न बोलें कहीं। 
अब फितरतों में ऐसा ही मौसम रहा ,
लोग रहते शहर ,गावँ जाते रहे। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

Monday, February 27, 2017

आज दिवस कविता का बोलो

poem by Umesh chandra srivastava

आज दिवस कविता का बोलो ,
कविता की कुछ बात करें। 
वह कविता-सविता सी बहती ,
आज जरा दो हाथ करें। 

रूप बिम्ब की सुन्दर बानी ,
देखो-वह कविता की रानी। 
राजा के संग नाच रही है ,
वह तो कहते ,बन्द-वन्द हो। 
छंदों का खूब घेरा हो ,
मैं तो कहता-बात साफ हो। 
कोई नहीं घनेरा हो। 
रूप कवित्री की वह बातें ,
जिसमें पूर्ण समर्पण है। 
लय है ,धुन है ,भाव सुनहरे ,
कोई बंद नहीं तो क्या ?

बात समझ में सब आती है ,
बोलो-क्या यह कविता नहीं। 
तुम तो बड़े चितेरक़ ठहरे ,
कुछ बन्दों को गढ़ा बहुत। 
पर बतलाओ क्या तुमने भी ,
जीवन में बंदिश झेली। 
अगर नहीं-तो यहाँ बताओ ,
बन्दिश की क्यों बात करें ?

आओ चले वहां मुखरित है ,
जीवन की सब सौगातें। 
आओ टहल वहां भी आएं ,
जहां गुलों की कलियाँ हैं। 
कुछ तो लय में ,बाकी बेलय ,
लेकिन सब तो सुन्दर हैं। 

अब बतलाओ , वहां की बातें ,
कविता में डालें कैसे ?
मत तुम बनो यहाँ डिक्टेटर ,
तुम कविता के नहीं कलेक्टर। 
बाकी तो सब ठीक रहा ,
चलने दो, जैसा चलता है। 
कहने दो ,जैसा कहता है ,
कविता नहीं तो और है क्या ?



उमेश चन्द्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

Sunday, February 26, 2017

जन-मन भाई रग-रग में

poem by Umesh chandra srivastava 

जन-मन भाई रग-रग में ,
सत्य,अहिंसा धरो मन में। 
पावन दृष्टि सुखद रहे ,
सत्य, अहिंसा भजो मन में। 

पशु,पक्षी जितने भी जीव ,
सबसे प्रेम करो मन से। 
जल ,जंगल ,उरवर ,भूमी ,
पर्वत सा रुख न हो मन में। 

प्रेम जगत की अद्भुत देन ,
इसे अपनाओ तन-मन में। 
कोई शत्रु नहीं यहाँ पर ,
सबमें प्रेम ,भरो मन में। 

देखोगे सब काम बने ,
सत्य दृष्टि रखो मन में। 
अहिंसक पथ अपनाओ तुम ,
सुख सम्पति सब है मन में। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Saturday, February 25, 2017

ये चन्दा, ये सूरज, नज़ारे जो सारे

poem by Umesh chandra srivastava 


ये चन्दा, ये सूरज, नज़ारे जो सारे,
नही अच्छे लगते, बिना ये तुम्हारे। 
तुम्हारी छवि पे सभी लगते बौने,
नही तुम तो कुछ भी, नही है सुहाता। 
वो बातें, वो राते सुलगती है मन में,
बहुत सोचता हु, मगर रहना पड़ता। 
तुम्हारी दीदारी से, उत्साह है आता,
तुम्हारे ही रहने से, जीवन लुभाता। 
मगर अब करे क्या, तुम्हारे बिना हम,
ये सागर,ये गागर, नही कुछ है भाता। 







उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Friday, February 24, 2017

शिवा तुमसे पूछूँ यही मैं सवाल

poem by Umesh chandra srivastava 

शिवा तुमसे पूछूँ यही मैं सवाल ,
तुम्हारी जगत में नहीं है मिसाल। 
तुम्हीं श्रद्धा-भक्ति ,तुम्हीं पालनहार ,
तुम्हारे से चलता जगत 'औ' संसार। 
कोइ दान देकर ,मगन हो रहा है ,
कोई दान लेकर सघन हो रहा है। 
तुम्हारे न जाने हैं कितने ही नाम ,
कोई रूद्र बोले ,कोई नीलकंठ -
सहत्रों ही नामों से तुमको प्रणाम।
तुम्हारे भरोसे ही जग ये चले ,
बताओ तुम्हीं एक मस्त मराल। 
भभूती रमें ,अंग-अंगों में तुम ,
'औ' रहते वहां जहँ नीला वितान। 
मगर सुध है सब की ,रचयिता हो तुम ,
तुम्हीं से उत्सर्जन,तुम्हीं से विसर्जन। 
तुम्हें कोटि बारंम है बार प्रणाम ,
जगत सत्य शिव हो ,तुम्हीं मात्र सुन्दर। 
तुम्हें है प्रणाम , तुम्हें है प्रणाम। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Thursday, February 23, 2017

चाँद-तारों की देखो हैं आयी बारात

poem by Umesh chandra srivastava

चाँद-तारों की देखो हैं आयी बारात ,
चाँद दुल्हा बना ,चांदनी है दुल्हन । 
देखो उनका तो सहयोग इतना घना ,
चाँद निकले तभी चांदनी भी रहे । 

चाँद इठला के कहता-चंदनिया को ,
तुम हमारे से हो ,हम तुम्हारे से हैं। 
राग कितना अनोखा सरल लग रहा ,
बात उनकी सुनो'औ 'अमल करो तुम। 

माना चन्दा-चन्दनियां तो शास्वत रहे ,
हम तो मानव हैं ,कर्मों से शास्वत बनें। 
वो निगाहें करम , वो नज़ारे सनम ,
डूब जायें ये रंगत ,ये संगत भला। 

ज़िन्दगी तो बताओ है केवल कला ,
इस कला में चलो झूमें मस्ती करें। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

Wednesday, February 22, 2017

तुम्हीं देशप्रेमी ,तुम्हीं देश भक्त

poem by Umesh chandra srivastava 

तुम्हीं देशप्रेमी ,तुम्हीं देश भक्त ,
तुम्हीं पे ये निर्भर है पूरा स्वदेश। 
तुम रहते वहां-जहां बर्फ़ों की चादर ,
यहां हम सुखी हैं ,वहां तेरा आदर। 

बड़े ही जतन से है तुमने सँवारा ,
ये अपना वतन है ,तुम्हीं इसके न्यारा। 
तुम्हें प्यार सम्मान ,सब कुछ न्योछावर ,
तुम मेरे वतन  के ,रहो प्राण प्यारे। 

बड़े ही सलीके से तुमने दिखाया ,
वतन पे तुम्हीं ने है मरना सिखाया। 
अमर तुम , सजग तुम ,अनोखे हो प्राणी ,
नमन कर रहे हैं तुम्हें देश भक्तों। 

तुम्हीं से सजा है ,ये पूरा वतन तो ,
तुम्हीं प्राण इसके तुम्हीं देवता हो। 
तुम्हारी वजह से यहाँ हम सुखी हैं ,
तुम्हें हम सभी तो नमन कर रहे हैं। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Tuesday, February 21, 2017

मैं तो भोला भाला पंछी

poem by Umesh chandra srivastava 

मैं तो भोला भाला पंछी ,
तू तो चतुर-वतूर ठहरी। 
मैं तो चलता डगर पकड़ के , 
तू तो घूमे गली-गली। 

तेरे रुनझुन के दीवाने ,
तुझको समझें कली-कली। 
मैं तो बौराया हूँ पंछी ,
तुझको समझूं ह्रदयवली। 

तुम तो मुक्त गगन सी लगती ,
कभी खुली, तो कभी बदली। 
मैं तो उमड़ा वह बादल हूँ ,
तुमको देखूँ हली-हली। 

तुम तो समझ परे सी लगती ,
क्या - क्या तुमको नाम मैं दूँ ?
सदा रहो खुशहाल जहाँ भी ,
तुम तो मेरी वली-वली। 


 उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Monday, February 20, 2017

हिन्द हमारा हिंदुस्तान

poem by Umesh chandra srivastava 

हिन्द हमारा हिंदुस्तान ,
हम सब भारत की संतान । 
सिख ,ईसाई ,हिन्दू-मुस्लिम ,
सब आपस में भाई-भाई। 

उत्तर में हिम गगन स्पर्शी ,
दक्षिण में है विन्ध्य महान। 
सदियों से इस अतुल धरा पर ,
गंगा-यमुना का वरदान। 

गंगा श्वेत ,जमुन कुछ श्यामल ,
दोनों-उज्वल मन के कोमल।
 
अतुलित गाथा हिन्द हमारा ,
राणा ,वीर शिवा संतान । 
रग-रग में तो देश प्रेम है ,
हम सब भारत  की पहचान । 

सारे देव इसी वसुधा पर ,
आते रहे ,निरन्तर देते -
सद्बुद्धि ,पौरुष महान। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -


poem by Umesh chandra srivastava

Sunday, February 19, 2017

शिव का ऐसा रूप भयंकर

poem by Umesh chandra srivastava

शिव का ऐसा रूप भयंकर ,
कभी नहीं किसी ने देखा। 
अभयंकर भी क्रोध में आकर -
काटा था निज सुत का सिर। 
पर यह गलती अनजाने में ,
पता चला तो सिर बदला। 
लेकिन उस माँ की मजबूरी ,
रही भला क्या -वह जाने ?
अपने सुत के माँ के भाव को ,
शिव ने गर्द मिला डाला। 
कैसी नीति - सामाजिक बन्धु ,
जो अब भी सहती माएं !

 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

Saturday, February 18, 2017

गंग आचमन

poem by Umesh chandra srivastava


गंग आचमन करके निकली ,
देखा घाट को दृष्टि पसार। 
कोई देखता इधर-उधर था ,
कोई करता था मनुहार। 

कोई बैठ किनारे पर ही ,
माँ की पूजन में तल्लीन। 
कोई भिखारी को देता था ,
पैसा-कौड़ी और रुमाल। 

घाटों पर था दृश्य अनोखा ,
चन्दन ,रोली ,अक्षत-सब। 
वहीं किनारे पण्डा बैठे ,
भक्तों में निमग्न दिखे। 

कोई-कोई नज़र पैतरा ,
करके देखे इधर उधर। 
बाट जोहता वह शायद था ,
नज़र हटे 'औ'  काम करें । 

गंगा तट के घाट मनोहर ,
मण्डन-सुंडन सब होता। 
उधर दूर पर पक्षी उड़ते ,
इधर गा  रही महिला सोहर। 

आरति ,पुजा ,अर्चन ,वन्दन ,
सब कुछ दीखे यहाँ-वहाँ। 
कहाँ-कहाँ की बात बताऊँ ,
भाव मुताबिक दृष्टि दिखे। 




उमेश चन्द्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Friday, February 17, 2017

अकेले ही पथ पे

poem by Umesh chandra srivastava 

अकेले ही पथ पे ,है चलना अकेले ,
अकेले ही आए ,अकेले ही जाना।
यहां मान-सम्मान देते बहुत हैं ,
मगर ध्येय केवल ,है चलना अकेले।
बहुत रंग दुनिया में देखो यहाँ पर ,
कोई पथ पे चलने की उम्मीद देगा।
कोई तुमसे भटकन की बातें करेगा ,
मगर तुम अडिग हो ,अकेले ही चलना।
उसी से मिलेगा सभी कुछ यहाँ पर ,
जहां की है बातें ,जहां वाले जाने।
जतन से ,लगन से, सभी काम करना ,
तभी ध्येय मिलेगा ,अकेले ही रहना।
ये साथी-सँघाती, सभी हैं तुम्हारे ,
मगर उनकी सीमा ,उसी से मुकरते।
तुम्हे लक्ष्य साधे , अकेले है चलना।
वो देखो, वो ध्रुव था ,अकेले चला था ,
मिला उसको गगनों में स्थान देखो।
चमकता सितारा अभी भी चमकता,
वह कहता अकेले की किस्सा कहानी ,
वही है निशानी, अकेले ही चलना।




 उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Thursday, February 16, 2017

आ गया फागुन सुहाना

poem by Umesh chandra srivastava 


आ गया फागुन सुहाना ,रंग में रंगने लिए। 
वह कहाँ पर भाग जाता  ,संग से बिछुड़न किये। 
सोच रक्खा था कि अब की ,फागुनों में वो मिले। 
रंग से रंगूँ मिलाकर ,उसकी सूरत मलामल। 
पर उसे तो दौर वह प्रिय , जिसमे सब रंगीन हो। 
रंग गुलालों की ज़रुरत ,वहं कहाँ पे हो रही। 
वह रँगीली रंग बिना ही ,रंग की संगनी बनी। 
वह वहां पर खड़ी देखो-रंग की रंगत लिए। 
उसपे रंगों की फुहारें -डालना बेकार है। 
वह तो खुद रंगों की मलिका उसका वह आकार है। 
बेवजह मैं जोहता था-फागुनों के दिवस-दिन। 
उसके रंगों में रंगा मैं ,हर दिवस है फागुनी।  


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Wednesday, February 15, 2017

नेताओ की ऊर्जा बंधू

poem by Umesh chandra srivastava


नेताओ की ऊर्जा बंधू, सीखो इनसे ज़रा-ज़रा।
झूठ-मूठ ये सब कुछ कहते- देखो इनकी कला-कला।
हार रहे हैं फिर भी इनके- चाल चलन में ढलन नहीं।
वो देखो फिर से ललकारा- हमी बनाएंगे सरकार।
कार-वार  का किस्सा अब तो हुआ पुराना राग रहा।
आयोग की बंदिश इतनी, शब्दो, पैसो पे जकडन।
फिर भी देखो नेता ऐसे- ऊष्मा की प्रतिमूर्ति बने।
मिले न मिले कुछ भी हो पर देखो वो तो डेट हुए।
कुछ ही दिन के इस मेले में वह तो एकदम फटे हुए।
बोल-बोल चिल्लाकर कहते, हम ही एक सुधर प्राणी।
बाकी सारे ऐसे-वैसे, मेरा कुनबा स्वच्छ रहा।
 ऐसे-ऐसे बोलो से तो जन-मन कुछ विचलित होता।
सोच रहा है कौन है सच्चा, दूजे को समझे बच्चा।
पता चलेगा मतदानों के बाद इन्हें, कौन है सच्चा।
                                                                                                 

                                                                                                                            - उमेश चंद्र श्रीवास्तव

poem by Umesh chandra srivastava         

Tuesday, February 14, 2017

प्रेम का यह दिवस

poem by Umesh chandra srivastava



प्रेम का यह दिवस ,सभी फूलें ,फलें ,
मन में प्रेमों का दर्पण सँवरता रहे।
माँ-सुता साथ हों ,पिता-पुत्र बढ़ें ,
पति-पत्नी में प्रेम का इज़हार हो।
प्रेमिका-प्रेम की डोर बनती रहे ,
इस उमर में तो प्रेमों की पेंग बढ़े।
यह जमाने का दस्तूर पहले रहा ,
प्रेम पावन रहे ,प्रेम बस प्रेम हो।
कोई इसमें बनावट ,सजावट नहीं,
प्रेम पुलकित रहे भाव अच्छे बने।
इसमें साथी रहें 'औ' संघाती तने ,
प्रेम दुनिया के नीले वितानों पे हो।
प्रेम उर्बी बने ,'औ ' प्रकृति हो सजन,
प्रेम थोथा बयारों सा न उड़ सके।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Monday, February 13, 2017

प्रेम के देवता

poem by Umesh chandra srivastava

प्रेम के देवता ,तेरा दर्शन तो हो,
मैं ह्रदय ज्योति मन में जला के रहूँ।
तुम कहो-रूप का यह जो दर्पण मेरा ,
उसको तुम पर ही केवल लुटा के रहूँ।
आज फिर तो बजी बांसुरी मन मेरे ,
तुम तो कन्हा बनो ,मैं तो राधा रहूँ।
फिर चले दौर वह-जहाँ प्रेम नगर ,
उस भवन में ,तेरी बन के साधक रहूँ।
तुम कहो बात क्या ,वो जो तारा दिखा ,
उसको तोड़ जमीं पे दिखा के रहूँ।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Sunday, February 12, 2017

छंदों का मतलब वेद ,वर्ण-3

poem by Umesh chandra srivastava

छंदों का मतलब वेद ,वर्ण ,
छंदों में मात्राएँ , गिनती। 



सब सरल , सुलभ बातों का रंग ,
नयी कविता की सुर है सरिता ।  
जो भी न बहा-इस रस में तो ,
उसका जीवन साकार कहाँ। 

मत तुम छेड़ो वह छंद शास्त्र ,
तुम ही बोलो क्या मानव भी ?
सब शास्त्र-वास्त्र चुन रहते हैं ,
तब बात यहां किन छंदों की। 

वह युग था, युग के साथ गया ,
नवयुग में हो, नवयुग धारा। 
अपनी बातों का लिखो बिम्ब ,
तुक-तुक-तुकांत में न पड़ के। 

अपनी कविता में रह अनंद ,
कहने दो, उनको कहने दो। 
वह अपनी बात सँवारेंगे ,
निज रस में डूबे वो तो हैं। 

उनको-उनमें ही रमने दो ,
तुम अपनी बात कहो वैसे। 
जैसे तुम कहना चाह रहे ,
मत उनके चक्कर में पड़के। 

तुम अपना मार्ग बनाओ खुद  ,
समझो तुम वह भी तुम जैसे। 
वह कोई नहीं नियंता हैं ,
वह भी तो केवल अभियंता। 

परमार्थ बात के चक्कर में,
तुम मत भ्रम पालो यहाँ रहो। 
अपनी बातों को लयता से ,
तुम कहो-रहो और खूब कहो। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

Saturday, February 11, 2017

छंदों का मतलब वेद ,वर्ण-2

poem by Umesh chandra srivastava

छंदों का मतलब वेद ,वर्ण ,
छंदों में मात्राएँ,गिनती।



अब नवयुग है ,नव युग में तो ,
नवयुग में छंद कुछ हुए मंद।
पर उसका भी अपना मुख है ,
लय में ही बात सभी कुछ है।

वो देखो-वह तोड़ती पत्थर ,
निर्विकार वह कर्म रत ।
उसके कर्मों का तार वहां ,
मेहनत धर्मों का वार वहां।

उसका ईश्वर वह कर्म रहा ,
कर्मों का सेतू जग सारा ,
सब अपना- अपना कर्म करें
सब अपना-अपना धर्म धरें।

गीता में कृष्णा की बातें ,
कर्मों से बंधे हैं , सब सारे।
जैसा भी कर्म रहेगा तो ,
वह फल वैसा ही पायेगा।

यह भोग-जोग ,अविराम श्याम ,
सब कर्मों के हित मिलते हैं।
वह तारा जो स्थिर है वहां ,
कर्मों के चलते वह है तना।

कर्मों की डोरी कविता है ,
जो अविरल सविता सी बहती।
सब बात नज़ारे वह कहती ,
अपने ही धुन में वह रहती।  

कविता तो सुकोमल मनभावन ,
मन के अंतस का प्रेम सुलभ।
मानव होना व्यवहार रहा ,
कवि तो बन जाना है दुर्लभ। ...........................शेष कल







उमेश चंद्र श्रीवास्तव -


poem by Umesh chandra srivastava

Friday, February 10, 2017

छंदों का मतलब वेद, वर्ण-1

poem by Umesh chandra srivastava


छंदों का मतलब वेद, वर्ण ,
छंदों में मात्राएँ, गिनती।
वह शास्त्र जहाँ पर छंदों के ,
रचना, नियम, विवेचन हों।

छंदों का सीधा अर्थ हुआ ,
जो बंधा हुआ या रचा हुआ।
इस बंद में बिम्बों का खिलना ,
उद्गार सभी रस का मिलना।

वैसे तो छंद अनेकों हैं ,
दोहा ,चौपाई बहु चर्चित।
तुलसी की रामायण पूरी ,
इस छंद विधान में गाढ़ी हुई।

कबीरा ने भी तो दोहे में ,
अपनी सारी ही बात कही।
पर लीलाओं का वह चित्रण ,
खुब सूर ने अपने पद में लिखा।

मीरा का प्रेम समर्पण सब ,
मीरा के गीतों में ही बही।
सब बात पते की अनुभवगत ,
रहीम-रसखान ने खूब कही।

वह युग था केवल छंदों का ,
सुन्दर बातें ,सब छंदों में।
कुंडलियों में देखो खूब ही ,
उन लोगों ने सब बात कही।

अब नवयुग है ,नवयुग में तो.................

उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 






poem by Umesh chandra srivastava






Thursday, February 9, 2017

माँ तो देती सदा ,कुछ न लेती कभी,

poem by Umesh chandra srivastava

माँ तो देती सदा ,कुछ न लेती कभी,
माँ के मुखड़े पे सारा जहाँ खिल गया।
माँ का स्नेह ,कोमल ,छलकता वह प्रेम,
माँ के आँचल में सारा जहाँ मिल गया।
माँ के नयनों में दर्पण सा सब कुछ लगे  ,
माँ का स्पर्श ,मानों कमल खिल गया।
माँ हमेशा यह सोचे ,मेरे लाल को ,
कोई तकलीफ न हो, वो सच्चा बने।
हम घड़े माटी के ,माँ सँवारे हमें ,
फूल सा वह तो पाले, जगत खिल गया।
माँ-दुआएं हमेशा बरसती रहें।
माँ बदौलत ही बच्चा, शिखर बन गया।




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Wednesday, February 8, 2017

दुःख की रजनी बीत चली है


दुःख की रजनी बीत चली है ,
अब तो नया नवेरा है।
नवल प्रभात का सुन्दर देखो ,
कैसा सुखद सवेरा है।

पंछी कलरव दूर गगन में ,
धरती पर हरियाली है।
दूर गगन से अंशुमाली ,
कितनी छटा निराली है।

गंग नदी पर पाहुन आये ,
रोली , चन्दन, अक्षतयुक्त।
वह देखो अटखेली करता,
नन्हा-मुन्ना गोदों में।

कितनी मधुर सुखद बेला है ,
यहां-वहां सब खुशियाली।
बालू की है रेत उड़ रही,
देखो छटा विराली है।

धरती कितनी लगती प्यारी ,
सुबह पहर की बेला अद्भुत।
सुबह-सुबह जो काम हुआ तो ,
समझो दिवस मनोहर होगा।

ईश्वर का अविराम यहाँ है ,
वह देखो मुस्काती बदली।
अपनी अदा बिखेरी है ,
सुन्दर , रम्य ,मनोहर पावन।
पवनों का भी डेरा है।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Tuesday, February 7, 2017

माँ तुम केवल ममतावाली


माँ तुम केवल ममतावाली ,माँ तुम मेरी शक्ति हो।
बिन तेरे माँ इस दुनिया में ,बोलो कौन सी भक्ति हो।
माँ के चरणों के रज में तो,अमृत सा रस पान मिले।
माँ की बदौलत बच्चा उसका ,पूरे जग की शान बने।
माँ का आंचल दूध भरा है , माँ के नयनों में है प्यार।
माँ के अधरों पर खुशियों का ,पूरा का पूरा संसार।
माँ का ह्रदय सुहावन घन है ,माँ की गोद अमर वरदान।
माँ से ही हम आये यहाँ पे ,माँ से ही सब बात खिले।
माँ की बलईयाँ पवन-सावन ,माँ का रूप सलोना है।
बोलो ,बताओ इस धरती पर ,माँ के आलावा सुन्दर क्या ?
माँ देती बच्चों को सब कुछ ,माँ के कारण हम बढ़ते।
माँ के आशीषों से हममें ,रक्त प्रवाहित, दृष्टि मिले।
मन की मुखरित हैं सब बातें ,मन से केवल प्रेम खिले।
सदा-सदा वह निज बच्चों को ,चाहे वह खूब फले,बढ़े।







उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Monday, February 6, 2017

मिलते रहोगे बात ,अपने आप बनेगी ,


मिलते रहोगे बात ,अपने आप बनेगी ,
कुछ हम कहें ,कुछ तुम कहो, मुलाक़ात बढ़ेगी।
बस इस तरह से ज़िन्दगी में फूल खिलेगा  ,
धरती में बीज डाल दो, पौधा ही उगेगा ।
सन जुस्तजू यहीं पर, संसार यही है ,
लोगों का आना-जाना, व्यवहार यही है।
तुम कहते रहो अपना-हम भी सुनाएंगे ,
दुनिया में लेना-देना चलता ही रहेगा।
वह आ गया-वह मिल गए- यह खेल है यहां ,
उस रूपसी का सुन्दर व्यव्हार यहाँ है।
उस घेर बिंदु में ही सफर कट रहा ,कटे ,
बस इसी छोर-ओर पे सौगात बनेगी।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 

Sunday, February 5, 2017

बेटियां-2

बेटियां गुल खिलाती यहाँ से वहां ,
हम सभी तो उन्हीं की वजह से हुए।


राधा कृष्णा के साथ -रमी खूब रहीं ,
रुकमणी भार्या ,कान्हा की हो के गयीं ।
ज़िन्दगी भर रही साथ हासिल ही क्या ?
पूजते जा रहे सिर्फ राधा 'औ' कृष्ण।
रुकमणी को बताओ मिला हक़ कहाँ,
पूजा मंदिर में राधा रहीं कृष्णा संग।
रुक्मणी तो रही केवल भार्या यहाँ,
अब बताओ कहाँ तक सहें बेटियां।
उनको हक़ ही नहीं दे सके देवता,
तो बताओ मनुज का यहाँ मोल क्या ?
काम कुछ तो करो-बेटियां नाम हो,
तुम मुकद्दस जहाँ की हो अनमोल देन।
तुम तो अपना मक़द्दर बनाओ यहाँ,
देखो-जग में खिलोगी -तुम तो फूलो जहाँ।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -


Saturday, February 4, 2017

बेटियां


बेटियां गुल खिलाती यहाँ से वहाँ ,
हम सभी तो उसी की वजह से हुए। 
वो है बेटी कहीं ,कहीं पे माँ बनी ,
वह है पत्नी ,बहन ,बुआ ,दादी घनी। 
उसका ही धन ,उसी का है सारा जगत ,
वह ही उर्बी बनी -सबको ठौर दिया। 
गर धरातल न हो ,तो फिर बोलो कहाँ -
हो कहाँ पे खड़े 'औ' कहाँ- सो ,रहो। 
उसकी नेकी पे चलता है सारा जहाँ ,
वह तो तोहमत सहे ,व्यंग्य बाण भिदे। 
उसका करतब मनोहर-सहज है सरल ,
देखो-माँ-बेटी -नाम तो मोहक बहुत। 
उसने सब कुछ सहा -पर मगर क्या कहा ?
देखो सीता भी तो बेवजह हर गयी। 


                                                                                                                                   .....क्रमशः 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 

Friday, February 3, 2017

वो मर रहा था...


वो मर रहा था देखो-तस्वीर ले रहे ,
मंज़र सड़क का था कुछ-तस्वीर ले रहे। 
मानव यहाँ पे दृश्यलोक में ही ढल रहा ,
संवेदना अंतस की भला कहाँ खो गयी।
सोचो ज़रा -वह भाई,बहन कुछ तो कुछ तो है ,
अपना सगा नहीं है मगर वह वशर तो है। 
कुछ सोच इस दिशा में-रंग और भी ढले ,
मानव से प्रेम मानव ,कुछ तो कुछ करे। 
वरना अगर मंजर कभी-भी आप भी बने ,
सब देख के तस्वीर ले ,मस्त यूँ ही हों चले। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Thursday, February 2, 2017

मीत बनाकर प्रीत की डोरी


मीत बनाकर प्रीत की डोरी ,
कैसे-कैसे खींची है।
सुदिन दिखने के चक्कर में ,
कैसे-कैसे भींची है।

स्वप्न दिखने में तो माहिर ,
गलियों-गलियों घूम रहे।
बौराये हम पास तुम्हारे ,
सपनों में ही झूम रहे।

कहो वचन देते हो हमको ,
या फिर सपनों में भरमे।
बहुत दिखाया सपन-सलोना ,
मनुहारों 'औ' बातों का।

अब तो रहम करो कुछ थोड़ा ,
बहुत घुमा कर लाये हो।
भला-भला हो सदा तुम्हारा ,
भलमनसाहत अब क्या है ?

तुम तो झूमों अपनी मस्ती ,
मैं अब तो हूँ दूर चली।






उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Wednesday, February 1, 2017

माँ का वन्दन


कुछ तो माँ का वन्दन कर लें ,
रोली ,चन्दन ,हल्दी है।
पूजा की सामग्री सब कुछ ,
आरती थाल सजी देखो।

माँ की मूरत में निखरने तो,
सूरत को फीका करते ।
 क्यों न ऐसा हो-मेरे बन्धु ,
माँ ही लेखन देती है।

उसके बिना जगत में चलना ,
रुक-रुक बातें-वातें लिखना।
बड़ा मनोहर सुखद हुआ।

माँ तो साक्षात रहती है ,
कलमों ,मन के पोरों में।
उसने शब्द ,वाक्य सब गढ़ना ,
हमको सरल सिखाया है।

माँ के आँचल में वंशीवट ,
राम-रहीम सुखद रहते।
माँ से ही चलता सारा युग ,
माँ के चरणों में सब अर्पण।

ज्ञान पुंज ,सब मन विचार 'औ',
माँ ही देती चिंतन है।
अंदर की सारी अनुभूती ,
माँ पर वार ,न्योछावर है।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...